सोमवार, 15 मई 2023

नामवर सिंह:प्रगतिशीलआन्दोलन के रामानन्द/सदानन्द शाही




नामवर सिंह ने अपने सक्रिय और रचनात्मक जीवन के नब्बे वर्ष पूरे कर लिए। संघर्षमय नब्बे वर्ष  नब्बे वर्ष।इन नब्बे वर्षों में नामवर सिंह ने क्या किया ,जीवन क्या जिया किसी एक लेख में नहीं लिखा जा सकता।उम्र के जिस पडाव पर नामवर सिंह हैं आमतौर पर वहां पहुँचते पहुँचते लोग प्राय: अप्रासंगिक हो जाते है ।वहीं पहुँचकर  नामवर  केवल बहस में बने हुए हैं बल्कि तमाम तरह की चर्चा और कुचर्चा के केन्द्र में भी बने हुए हैं।नामवर सिंह कहां जाते हैं कहां नहीं जाते,किससे मिलते हैं और किससे नहीं मिलते इस पर चर्चा होती है।किसी भी गोष्ठी और समारोह में नामवर सिंह की उपस्थिति सफलता की गारण्टी मानी जाती है।नामवर के कहे को साहित्य के बाहर की दुनिया में गौर से सुना जाता है।देश के किसी कोने में नामवर सिंह जा रहे हों,साहित्य  से दूर का नाता रखने वाले भी नामवर सिंह के आगमन की नोटिस लेते हैं।इससे एक बात स्पष्ट है कि  साहित्य के मुद्दों पर तो नामवर सिंह की पैनी नजर होती ही है ,साहित्य से बाहर के मुद्दों पर भी उनकी निगाह रहती  है।ऐसा इसलिए कि नामवर सिंह के लिए साहित्य कोई दुनिया से कटी हुई संरचना नहीं बल्कि उसकी जडें इसी दुनिया में हैं,वृहत्तर दुनिया में हैं।यह जानते समझते हुए भी नामवर सिंह साहित्य का मूल्यांकन में साहित्यिक निकषों को ही महत्व देते है और साहित्य की स्वायत्तता का सम्मान करते हैं।इस मामलें में नामवर सिंह सामाजिक प्रतिबद्धता और साहित्यिक मूल्यवत्ता के बीच अद्भुत संतुलन स्थापित किया है।साहित्य के बारे  नामवर सिंह की यह द्वंद्वात्मक समझ ही उन्हें  अपने बहुत से पूर्ववर्तियों ,समकालीनों और बाद की पीढी के आलोचकों की भीड से अलगाती है और नामवर  बनाती है।

समाज और साहित्य में समरस आवाजाही नामवर सिंह को निरा साहित्य का आलोचक नहीं रहने देती ।वे जन बुद्धिधर्मी के रूप में हमारे सामने आते हैं।कभी विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा था कि 'उनकी (नामवर सिंह की) फितरत यह थी कि जहाँ जिस शहर में होते  उस शहर के सबसे  प्रसिद्ध  और समर्थ शुभचिन्तक से ठान लेते।' यानी जल में रहे मगर से बैर।यह नामवर सिंह के व्यक्तित्व की ही नहीं उनके लेखकीय व्यक्तित्व की भी खासियत है। शुभचिन्तक तभी तक शुभचिन्तक रहता है जब तक उसकी हां में हां मिलाते रहो।ऐसा वही कर सकता है जिसकी सच में आस्था हो ।सच में आस्था होने के लिए जरूरी है कि आपके पास अपना कमाया हुआ सच हो ,जैसे कि कबीर के पास था।नामवर सिंह ने अपना सच कमाया और उस सच के बूते अपने समय की सत्ताओं से टकराते रहे।कहने की जरुरत नहीं कि किसी लेखक को सत्ता से टकराने के लिए लाठी डण्डे या तोप तमंचे की जरुरत नहीं होती।उसकी कलम और जुबान ही काफी है ,अगर हो तो।लेखक के लिए सत्ता से सच कह देना ,सत्ता से सच कहने का साहस रखना ही सत्ता से टकराना है।सत्ता अपने होने के लिए एक धुन्ध रचती है।नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो मिथ्या चेतना।यह धुन्ध समय की आँख को धुँधला कर देती है।सच्चा लेखक या बुद्धिधर्मी अपने सच से इस धुन्ध को साफ करता रहता है और सच को पारदर्शी बनाता है और जन सामान्य के लिए सहज सुलभ बनाता है।


नामवर सिंह का लिखा और बोला हुआ जो विपुल साहित्य है वह प्रमाण है कि उनकी वाणी और लेखनी में सत्ता से सच कहने का साहस रहा है।वे जिसे सच समझते हैं उसे बिना लाग लपेट के कह देते रहे हैं।सत्ता चाहे विभाग की हो ,विश्वविद्यालय की हो,शहर की हो या देश की।बहुतेरे ऐसे तथाकथित विद्रोही और क्रान्तिकारी मिल जाते हैं जो अमेरिका के वियतनाम या इराक पर हमले के विरूद्ध आवाज उठायेंगे,जुलूस निकालेंगे लेकिन लुल्ल से लुल्ल विभागाध्यक्ष के तलवे सहलायेंगे।वह भी किसी बडे खतरे के डर से नहीं सत्ता सुख के कुछ चीथडे मिल जायं बस इसी के लिए।वे किसी जुलूस में नारा लगायेंगे पर इस सावधानी से कि हाथ भी उठ जाय और काँख  भी दिखाई पडे।जाहिर है अमेरिकी राष्ट्रपति तो आपका कुछ बिगाडने नहीं रहा है लेकिन विभागाध्यक्ष तो जीना हराम कर देगा,वह भी जिसकी कुर्सी के अलावा कोई पहचान नहीं होती है।नामवर सिंह जिससे टकराये वे नन्द दुलारे वाजपेयी जैसे कद्दावर विभागाध्यक्ष थे।वे स्वयं रहा तो।सत्ता से सच कहने और सत्ता से टकराने का साहस नामवर में रहा है।यह साहस कुछ या कुछ भी पा लेने की लपलपाती हुई ललक से नहीं सबकुछ को दांव पर लगा देने के हौसले से आता है।नामवर सिंह में यह हौसला था।उन्होंने अपने सच के लिए नौकरियां गवायीं हैं। हम जानते हैं कि ऐसे मौकों पर समझौते के प्रस्ताव भी आये होंगे ,बीच के रास्ते निकाले गये होंगे , लेकिन नामवर ने समझौते के  घोसले में घुस कर सुरक्षित जीवन जीने के बजाय खुले आसमान में उडान भरने की चुनौती स्वाकारी और तू शाही है परवाज है काम तेरा की तर्ज पर खुले आसमान में उडते रहे।आरम्भिक बातों को छोड भी दें तो पिछले दो दशकों से अकेले नामवर सिंह ने फासीवाद और सम्प्रदायवाद के विरूद्ध जो वैचारिकी रची वह बेजोड है।बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अमूर्त भारतीयता और राष्ट्रवाद की जो मिथ्या चेतना रची गयी नामवर सिंह ने उसके बरक्स मूर्त और जुझारू भारतीयता की अवधारणा को पुरजोर तरीके से विकसित किया।  यह हमारे समय के सबसे जरूरी सवाल थे जिन्हें नामवर ने संबोधित किया और सत्ता की वैचारिकी का प्रतिपक्ष रचा।

सत्ता से सच कहने की नामवर सिंह के साहस  ने हिन्दी आलोचना में श्रद्धा और भक्ति के घटाटोप के बीच विचार और विवेक की लौ को प्रदीप्त किया।ऐसा नहीं कि नामवर से पहले हिन्दी आलोचना में विवेक और विचारशीलता नहीं थी।थी,लेकिन वह किताबों के पन्नों तक महदूद थी।विवेक को जीवन में उतारने और उसे व्यापक हिन्दी समाज तक पहुँचाने का उद्यम नामवर सिंह ने किया।इस उद्यम ने धर्म भीरू ,श्रद्धा विगलित हिन्दी समाज में विवेकशीलता की जगह बनायी और प्रश्नाकुलता को मूल्य के रूप में स्थापित किया।

नामवर सिंह सही कहते हैं कि दूसरी परम्परा की खोज साहित्य में प्रतिपक्ष की तलाश है,लेकिन यह अधूरा सच है।दरअस्ल दूसरी परम्परा की खोज समाज में प्रतिपक्ष की तलाश है।हम सब जानते हैं कि एक बार सत्ता से दो -दो हाथ कर लेना अपेक्षाकृत आसान है बनिस्पत समय और समाज से दो-दो हाथ करने के।रूढि विजडित समाज प्राय:परम्परापूजक होता है जैसे कि हम हैं।ऐसे समाज में वर्चस्व की परम्परा के बरक्स दूसरी परम्परा की खोज ही नहीं उसे बीच बहस में लाने और स्थापित करने का काम वैचारिक और सामाजिक उथल पुथल मचा देने की हिम्मत और हिमाकत से कम नहीं है।यह ऐसी हिमाकत है जो प्रभुत्वशाली समूह की सतत हिकारत का पात्र बना देती है और अन्तत:अकेला कर देती है।दूसरी परम्परा की तलाश में नामवर सिंह इस कदर मुब्तिला हुए कि बिना यह परवाह किए कि इस युद्ध में कौन उनके साथ है और कौन साथ छोड कर चला गया ,वे मोर्चे पर डटे रहे। जबकि  दूसरी परम्परा के उनके अनेक सहयात्री बीच रास्ते में उन्हें अकेला और निहत्था छोडकर चले आये।बाद के दिनों में कभी कभी यह भी लगा कि स्वयं नामवर सिंह दूसरी परम्परा को छोड पहली परम्परा के साथ खडे हो गये हैं,लेकिन लगने और होने में कुछ तो फर्क होता ही है।

मुझे कहने दीजिए कि भारत में और खास तौर से हिन्दी में नामवर सिंह प्रगतिशील आन्दोलन के रामानन्द हैं।प्रगतिशील आन्दोलन जहां से आया हो,जैसे आया हो  उसकी आवाज को जन जन तक पहुँचाने में नामवर सिंह ने कितनी यात्रायें कीं,कितने व्याख्यान दिए ,कितने बोल कुबोल सहे इसका अन्दाज लगाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है।प्रगतिशील आन्दोलन को , प्रगतिशील वैचारिकी को ठोस भारतीय जमीन पर उतारने और भारतीय साहित्य से सन्दर्भित करने में नामवर सिंह के योगदान का मूल्यांकन होना शेष है।

नामवर सिंह ने परम्परा के बरक्स दूसरी परम्परा,जडता और अन्ध श्रद्धावाद के बरक्स प्रगतिशीलता,अमूर्त और आभासी भारतीयता के बरक्स मूर्त और जुझारू भारतीयता का प्रस्ताव किया।उनकी प्रश्नाकुल मेधा ने अपने समय के हर वाद को चुनौती दी और विवाद को संभव किया।यहां भी नामवर  अपने अन्य सहयात्रियों से इस रूप में अलग दीखते हैं कि विवाद रचते हुए भी उन्होंने संवाद की गुंजाइश बनायी।संवाद के लिए उन्होंने दुश्मन के गढ में जाने से भी गुरेज नहीं किया ,दोस्तों के व्यंग्य और कटाक्ष की परवाह नहीं की।मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो यह अन्त:करण के आयतन के संक्षिप्त होने का समय है।एक ऐसा समय जिसमें असहमति के लिए मतवैभिन्न्य के लिए गुंजाइश खत्म हो गयी है ,नामवर सिंह ने असहमति के लिए जगह बनायी।वे खुद असहमत हुए,औरों के असहमत होने के अधिकार का सम्मान किया।असहमति का सम्मान करने और असहमत से संवाद करने के लिए प्रस्तुत रहने की जैसी तत्परता नामवर सिंह में है वैसी रामविलास शर्मा के अलावा और किसी में नहीं दिखाई देती।कभी नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा को केवल जलती मशाल कहा था,यही बात आज नामवर सिंह पर लागू होती है-नामवर सिंह हिन्दी की विवेकवादी परम्परा की अकेली जलती हुई मशाल हैं।हमारी कामना है कि यह मशाल सौ वर्षों तक हमारी राह रौशन करती रहे।  


सामयिक सरस्वती में नामवर सिंह पर यह लेख